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सादगी और जिंदादिली की मिसाल थे रतन टाटा

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साधारण मज़दूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर करियर की शुरुआत

सन 1962 में रतन टाटा ने जमशेदपुर में टाटा स्टील में काम करना शुरू किया.

गिरीश कुबेर लिखते हैं, “रतन जमशेदपुर में छह साल तक रहे जहाँ शुरू में उन्होंने एक शॉपफ़्लोर मज़दूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर अप्रेंटिसशिप की. इसके बाद उन्हें प्रोजेक्ट मैनेजर बना दिया गया. इसके बाद वो प्रबंध निदेशक एसके नानावटी के विशेष सहायक हो गए. उनकी कड़ी मेहनत की ख्याति बंबई तक पहुंची और जेआरडी टाटा ने उन्हें बंबई बुला लिया.”

इसके बाद उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में एक साल तक काम किया. जेआरडी ने उन्हें बीमार कंपनियों सेंट्रल इंडिया मिल और नेल्को को सुधारने की ज़िम्मेदारी सौंपी.

रतन के नेतृत्व में तीन सालों के अंदर नेल्को (नेशनल रेडियो एंड इलेक्ट्रॉनिक्स) की काया पलट हो गई और उसने लाभ कमाना शुरू कर दिया. सन 1981 में जेआरडी ने रतन को टाटा इंडस्ट्रीज़ का प्रमुख बना दिया.

हालांकि इस कंपनी का टर्नओवर मात्र 60 लाख था लेकिन इस ज़िम्मेदारी का महत्व इसलिए था क्योंकि इससे पहले टाटा खुद सीधे तौर पर इस कंपनी का कामकाज देखते थे.

सादगी भरी जीवनशैली

उस ज़माने के बिज़नेस पत्रकार और रतन के दोस्त उन्हें एक मिलनसार, बिना नख़रे वाले सभ्य और दिलचस्प शख़्स के तौर पर याद करते हैं. कोई भी उनसे मिल सकता था और वो अपना फ़ोन खुद उठाया करते थे.

कूमी कपूर लिखती हैं, “अधिकाँश भारतीय अरबपतियों की तुलना में रतन की जीवनशैली बहुत नियंत्रित और सादगी भरी थी. उनके एक बिज़नेस सलाहकार ने मुझे बताया था कि वो हैरान थे कि उनके यहाँ सचिवों की भीड़ नहीं थी.”

“एक बार मैंने उनके घर की घंटी बजाई तो एक छोटे लड़के ने दरवाज़ा खोला. वहाँ कोई वर्दी पहने नौकर और आडंबर नहीं था. कुंबला हिल्स पर मुकेश अंबानी की 27 मंज़िला एंटिलिया की चकाचौंध के ठीक विपरीत कोलाबा में समुद्र की तरफ़ देखता हुआ उनका घर उनके अभिजात्यपन और रुचि को दर्शाता है.”

गिरीश कुबेर टाटा समूह पर चर्चित किताब ‘द टाटाज़ हाउ अ फ़ैमिली बिल्ट अ बिज़नेज़ एंड अ नेशन’ में लिखते हैं, ”जब वो टाटा संस के प्रमुख बने तो वो जेआरडी के कमरे में नहीं बैठे. उन्होंने अपने बैठने के लिए एक साधारण सा छोटा कमरा बनवाया. जब वो किसी जूनियर अफ़सर से बात कर रहे होते थे और उस दौरान कोई वरिष्ठ अधिकारी आ जाए तो वो उसे इंतज़ार करने के लिए कहते थे. उनके पास दो जर्मन शैफ़र्ड कुत्ते होते थे ‘टीटो’ और ‘टैंगो’ जिन्हें वो बेइंतहा प्यार करते थे.”

”कुत्तों से उनका प्यार इस हद तक था कि जब भी वो अपने दफ़्तर बॉम्बे हाउस पहुंचते थे, सड़क के आवारा कुत्ते उन्हें घेर लेते थे और उनके साथ लिफ़्ट तक जाते थे. इन कुत्त्तों को अक्सर बॉम्बे हाउस की लॉबी में टहलते देखा जाता था जबकि मनुष्यों को वहाँ प्रवेश की अनुमति तभी दी जाती थी, जब वो स्टाफ़ के सदस्य हों या उनके पास मिलने की पूर्व अनुमति हो.”

टेटली, कोरस और जेगुआर का अधिग्रहण

शुरू में रतन टाटा की व्यावसायिक समझ पर लोगों ने कई सवाल उठाए.

लेकिन सन 2000 में उन्होंने अपने से दोगुने बड़े ब्रिटिश ‘टेटली’ समूह का अधिग्रहण कर लोगों को चकित कर दिया.

आज टाटा की ग्लोबल बेवेरेजेस दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी चाय कंपनी है. इसके बाद उन्होंने यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी इस्पात निर्माता कंपनी ‘कोरस’ को खरीदा.

आलोचकों ने इस सौदे की समझदारी पर सवाल उठाए लेकिन टाटा समूह ने इस कंपनी को लेकर एक तरह से अपनी क्षमता का प्रमाण दिया.

सन 2009 के दिल्ली ऑटो एक्सपो में उन्होंने पीपुल्स कार ‘नैनो’ का अनावरण किया जो एक लाख रुपए की कीमत पर उपलब्ध थी.

नैनो से पहले 1998 में टाटा मोटर्स ने ‘इंडिका’ कार बाज़ार में उतारी थी जो भारत में डिज़ाइन की गई पहली कार थी.

शुरू में ये कार असफल रही और रतन ने इसे फ़ोर्ड मोटर कंपनी को बेचने का फ़ैसला किया. जब रतन डिट्रॉएट गए तो बिल फ़ोर्ड ने उनसे पूछा कि उन्होंने इस व्यवसाय के बारे में पर्याप्त जानकारी के बिना इस क्षेत्र में क्यों प्रवेश किया?

उन्होंने टाटा पर ताना मारा कि अगर वो ‘इंडिका’ को ख़रीदते हैं तो वो भारतीय कंपनी पर बड़ा उपकार करेंगे. इस व्यवहार से रतन टाटा की टीम नाराज़ हो गई और बातचीत पूरी किए बिना वहाँ से चली आई.

एक दशक बाद हालात बदल गए और 2008 में फ़ोर्ड कंपनी गहरे वित्तीय संकट में फंस गई और उसने ब्रिटिश विलासिता की ‘जैगुआर’ और ‘लैंडरोवर’ को बेचने का फ़ैसला किया.

कूमी कपूर लिखती हैं, “तब बिल फ़ोर्ड ने स्वीकार किया कि भारतीय कंपनी फ़ोर्ड की लक्ज़री कार कंपनी खरीद कर उस पर बड़ा उपकार करेगी. रतन टाटा ने 2.3 अरब अमेरिकी डॉलर में इन दोनों नामचीन ब्रांड्स का अधिग्रहण किया