
मशहूर साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल के 59 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की घोषणा हो गई है बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में विनोद कुमार शुक्ल ने अपने लेखक बनने के पीछे की कहानी बताई उन्होंने बताया कि लेखक बनने के पीछे उनकी प्रेरणा उनकी मां रहीं
पारिवारिक माहौल
बताना तो बहुत ज़्यादा मुश्किल है कि मैं लेखक कैसे बन गया. लेकिन तब भी घर में इस तरह का वातावरण तो ज़रूर था. सभी लिखते थे. मेरा ख्याल है कि किसी को पढ़ते हुए देखकर मेरी भी इच्छा होने लगी हो कि मैं भी लिखकर देखूं. मेरे चचेरे बड़े भाई कविताएं लिखा करते थे.
दूसरी ये बात है कि मेरी मां का बचपन जो है वो आज के बांग्लादेश के जमालपुर में बीता. मेरे नाना कानपुर के थे और किसी व्यापार के सिलसिले में बांग्लादेश चले गए थे. जब अम्मा नौ-दस साल की थीं तो लौट कर आ गईं. नाना की मौत हो गई थी. बल्कि दंगों वगैरह की वजह से उनकी हत्या कर दी गई थी.
तो अम्मा जब लौट करके आईं तो अपने साथ अपनी गठरी में वो कुछ बंगाल के संस्कार भी लेकर आईं. मेरी रुचि बनने में अम्मा का भी बहुत बड़ा हाथ है. जब मैं बहुत छोटा था तो मेरे पिता चल बसे थे, बहुत धुंधली यादें हैं उनकी. हमारा संयुक्त परिवार था.
मां बनी प्रेरणा
एक बार बहुत मुश्किल से मैंने दो रुपए बचाए थे. मैंने अम्मा से पूछा कि अम्मा मैं इनका क्या करूं तो अम्मा ने मुझसे कहा कि कोई अच्छी किताब खरीद लो. और अच्छी किताब के रूप में उन्होंने शरत चंद्र का नाम लिया, बंकिम का नाम लिया, रवींद्रनाथ टैगोर का नाम लिया.
तब मैंने अपने बचाए हुए पैसों से सबसे पहली किताब ‘विजया’ ख़रीदी शरतचंद्र की. उस किताब को मैंने पढ़ने की कोशिश की. अम्मा हमेशा मुझसे कहती थीं कि जब भी पढ़ना तो संसार की सबसे अच्छी किताब पढ़ना. फिर बाद में उन्होंने खुद मुझसे कहा कि तुम अपने परिवार के बारे में ज़रूर लिखो.
उस तरह से मेरा ध्यान तो ज़रूर रहा कि मुझे लिखना है. लिखने की कोशिश में जब भी मैं किसी प्रकार की मुश्किल में पड़ता था तो मुश्किल तो ये होती थी कि ठीक-ठीक अपनी मौलिकता को पाना बहुत कठिन काम है. यानी आप लिखें तो अपना ही लिखें. तो इसकी शुरुआत बचपन से ही हो गई थी और इसका कारण भी अम्मा ही थीं.
एक बार क्या हुआ कि लिखते-लिखते भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्ति ‘मैं गीत बेचता हूं’ मेरी कविता में आ गई. तो मेरे चचेरे बड़े भाई ने मुझसे कहा कि ये तो भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की पंक्ति है ये तुम्हारे में कैसे आई. और वो कुछ नाराज़ भी हुए तो मुझे बहुत दुख हुआ.
मां ने दी मौलिक लेखन की सीख
मुझको चोरी से बहुत डर लगता था. संयुक्त परिवार में रहते थे. वहां हर किसी की चीज़ इधर से उधर हो जाया करती थी. हम लोग चूंकि आश्रित थे तो हर बार ये लगता था कि कहीं कोई ये न सोच ले क्योंकि परिवार में लोगों के पास अच्छी चीज़ होती थी, अच्छे खिलौने होते थे. दूसरे मेरे सारे चाचा काफी संपन्न थे. तो मेरे लिए बड़ी मुश्किल होती थी तो मुझे चोरी से बहुत डर लगता था.
जब अम्मा ने उस दौरान कहा कि कुछ कर क्यों नहीं रहे हो तब फिर मैंने यही कहा कि मैंने एक कविता लिखी, लेकिन न जाने कहां से उसमें भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की पंक्ति आ गई, मैं तो नहीं जानता कि ये कैसे आ गई. ‘मैं गीत बेचता हूं’ ये बहुत लोकप्रिय कविता थी.
इन सब चीज़ों में अपनी याददाश्त में, अपने अंदर बस जानेवाली रचनाओं के बाद में अपनी रचनाओं को पाना बड़ा कठिन काम था. तब मैंने अम्मा से कहा कि फिर मैं क्या करूं. तो अम्मा ने मुझसे ये कहा कि “देखो अपनी छननी भी बनाओ. जैसे हम चाय बनाते हैं तो चाय की छननी होती है, आटे की छननी होती है, मैदे की छननी होती है, इसी तरह अलग-अलग चीजों की छननी होती है. तुम भी अपने लिखऩे की छननी बनाओ कि तुम्हारा लिखा ही तुम्हारे पास में रहे. दूसरों का लिखा तुम्हारे पास में न आए.”
तो एक अतिरिक्त किस्म की छान देने वाली ज़िम्मेदारी मेरी रचना के साथ में स्वत: पता नहीं कैसे आई, ये मैं नहीं जानता. इस बात की कोशिश रहती थी कि दूसरे का लिखा मेरे लिखे में न आ जाए. अपने लिखे पर बार-बार ज़ोर देने से इसकी शुरुआत हुई.